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भारत स्वर्ग हुआ करता था!

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विजय सिंह बंटवारा होगा ना दोबारा.. अफगानिस्तान से बर्मा तक, भारत भूमि अखंड थी! यहाँ की गाथा विश्व पटल पर, विजय, सुशोभित और प्रचंड थी!!                अखंड भारत का एक है नारा,                बंटवारा होगा ना दोबारा!                राष्ट्र बटा था सन सैंतालीस में,                नरसंहार हुआ बहुतेरा!! वीभत्स कृत्य था वो बंटवारा, जो हुआ धर्म के नाम पर! प्रताड़ितों को शरण मिली थी, भारत भूमि महान पर!!                जब भी प्रबल हुआ अँधियारा,                सूरज के किरणों से हारा!                कहीं सृजन तो कहीं प्रलय है,                सृष्टि नियंत्रण भेद है सारा!! नैतिक मूल्यों के पथ पर, भारत आगे बढ़ता है! मानवता के रक्षण हेतु, आतंकवाद से लड़ता है!!                आतंकवाद की मारी दुनिया,                कब तक प्राण बचाए!                 कब तक मानव बेबस होकर,                दुष्टों से टकराए !! विश्व शक्ति बन उभर रहा है, विश्व गुरु कहलाता था! नालंदा और तक्षशिला से जग में, ज्ञान चेतना फैलाता था!!                भारत का स्वर्ग हुआ करता था,                जम्मू और कश्मीर में!                हिंसा

इस गरजते कर्ज की अवा'कुछ हो (कमी)

  दवा कुछ हो.. - सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता" इस बिगड़ते मर्ज की दवा कुछ हो मुश्किलों में घिरा  शख़्स क्या करे एक इति हो नहीं तो सवा कुछ हो सूखते जा रहे जाने ये दरख़्त क्यों जो दे रूह-साँस ऐसी हवा कुछ हो जोकि जला लूँ मैं भी हालात अपने हुनर-हौसलों से बना तवा  कुछ हो "उड़ता"कोशिशों का गवा कुछ हो जैसे चाँद को निहारता लवा' कुछ हो

किससे कहू मन की व्यथा

डॉ  बीना सिंह मन की व्यथा किससे कहू जीवन की अपनी कथा किससे कहूं सूरज निकलता रहा हर रोज चांद ढलता रहा हर रोज रितु का आना-जाना बना रहा आपस में अनबन ठना रहा चांद सितारे तन्हा निहारती रही रोती कभी खुद को सवारती रही जीवन में पडाव आखिर आना  था कभी ढलान कभी चढ़ाव आना  था सफर यूं ही चलता रहा किस्मत वक्त के आगे हाथ मलता रहा जो जीता वही तो सिकंदर है ना जीता मान लो वह मुकद्दर है क्या इसी का नाम जिंदगी है शायद सांसों की गिनती ही बंदगी है चलिए चलती हूं फिर मैं मिलूंगी कुछ कहूंगी कुछ आपकी सुनूंगी मैं क्या हूं सिर्फ एक किरदार हूं मगर बेवफा नहीं वफादार हूं

You are special mom

Have a feeling mom Don't be with me Always close to the heart Whenever I used to get tired of the company of this world  I used to sleep secretly in your area  Neither used to say that you could feel anything in my mind  Then you used to be happy with the feeling of being near you  Used to be afraid of going back to this junky world  I used to think that there should be nothing, just be with you Mom you are special Have a feeling Don't be with me As long as this life is near the heart, you will always be in my mind temple  I bow to you ../

अरमानों के लिए

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  अंधड़ की गुहार मंजुल भारद्वाज उड़ती रेत में  रंगों का लिपटकर  एक साथ आना  धुंधली उम्मीदों का  जवां होना है  सूखे बरसों से  ख़ाली घड़ों की  प्यास बुझाना है   विरह में जलते  अरमानों के लिए  दरख्तों की सामूहिक  अरदास होती है  बादल से एक  अंधड़ की गुहार है  बूंद बूंद बरसने की!

कोरोना काल ने दौलत की कीमत बता दी:-विनीता सिंह चौहान

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मनोज मौर्य  वाणी मेरी सत्य कहे ऐसा वर दे मां... इष्ट जनों की आशिष हो ऐसा घर दे मां... ऑनलाइन काव्यपाठ में महिला कवियत्रीयों का रहा दबदबा... इंदौर। काव्य-गज़ल भारतवर्ष व्हाहटसप समूह पर ऑनलाइन काव्यगोष्ठी का आयोजन किया गया। देश भर की प्रसिद्ध कवियत्रीयों ने लाइव काव्यपाठ के माध्यम से देश-दुनियां और समसामयिक विषयों पर ताज़ा-तरीन रचनाएँ सुनाई। सरस्वती वंदना के साथ जितेन्द्र शिवहरे जुगनू ने सर्वमंगल प्रार्थना की - 'मां शारदे मेरा नमन स्वीकार करे...कंठ विराज के मां दूविधा से पार करे...वाणी मेरी सत्य कहे ऐसा वर दे मां...इष्ट जनों की आशिष हो ऐसा घर दे मां..अभिमान जब आकाश छुएं तू पल में उतार दे....।' प्रथम कवियत्री के रूप में इंदौर की युवा श़ायरा श्रुति मुखियां ने सुनाया- डूब कर पूरे समुंदर में एक कतरा पाया है...जब जाकर इस नादां दिल को कुछ समझ आया है...मेरी गुमसुम हंसी को छूं कर क्यों गुमशुदा हो...गुनाह किया किसी ने और जख़्म किसी ने खाया है...।  अनूपपुर की डॉ. किरण अग्रवाल ने काव्यपाठ किया- मेरे करीब से गुज़रा वो...बदन की भीनी ख़ुशबू के साथ...पलट के देखा न था कोई आस-पास...मेरा नसीब कुछ

बदलाव की बयार..

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बदल दिया ज़माना! मंजुल भारद्वाज जब जब भूमि पुत्रियों ने ठाना तब तब बदल दिया ज़माना ! चूल्हे की आग़ जब बनी मशाल तब भड़क उठी चारों ओर क्रांति ज्वाला ! जाग मक्कार भाग गद्दार छोड़ गद्दी हो फ़रार ओ पूंजीपतियों के दलाल अब रण में कूद पड़ी देख भारत की बाला ! छद्मी राष्ट्रवादियो खबरदार संघी विकारियो होशियार भूमि पुत्रियों की ललकार है बदलाव की बयार !

मोहताज नहीं

अलग मेरी कोई आवाज़ नहीं सुरेंद्र सैनी  हाल जो कल था वो आज नहीं कोई मेरे दिल में छिपा राज़ नहीं प्रेम मुझे है तुमसे और बेइंतहा है ये प्रेम मिलन का मोहताज नहीं किसी और से ताल्लुक नहीं मेरा मेरा बेवजय का कोई समाज नहीं हर दिन नयी धुन गुनगुनाता हूँ मैं एक जैसा जो बजे वो साज़ नहीं कुछ अल्फाज़ उकेर लिए "उड़ता" इनसे अलग मेरी कोई आवाज़ नहीं

प्रतिरोध लोकतंत्र का प्राण है !

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                   हे धरती पुत्रों तुम्हें सलाम!  मंजुल भारद्वाज इरादे अटल संकट सरल क्रूर मौसम कहर ढाती सर्द हावों को धरती पुत्रों ने वरदान बना लिया ! सही कहा आज़ादी भीख में नहीं मिलती लोकतंत्र सिर्फ़ वोट देना भर नहीं है चुनाव सत्ता का पर्व है लोकतंत्र का गला घोंटती सत्ता से मुक्ति का पर्व है प्रतिरोध प्रतिरोध पर्व लोकतंत्र का प्राण है भारत के अन्नदाताओं ने अपने प्राणों की आहुति से प्रतिरोध के हवनकुंड की अग्नि को जलाये रख विचार मर नहीं सकता के मुहावरे को अमर कर दिया ! हे भूमि पुत्रों याद रखेगा देश हिसाब लेगा वक़्त निर्लज्ज सरकार जब तारीख़ पे तारीख़ दे रही है तब हाड कपा देने वाली ठंड में किसान शहादत पे शहादत दे रहे हैं ! बसंती रंग के दीवानों लोकतंत्र के मतवालों कुर्बानी और सत्याग्रह की मशाल और मिसाल हे धरती पुत्रों तुम्हें सलाम!

तेरा चूल्हा जलता रहे

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                              मंजुल भारद्वाज नये साल में हर हाल में हर रसोई में गाँव,शहर,बसती में तेरा चूल्हा चलता रहे ना भूख से कोई मरे ! शियार थे पहले सवार सत्ता पर भाग जाते थे ढोल बजाने से भेड़ों के झुंड को अब लकड़बग्गों ने घेरा है जान ले डरते हैं लकड़बग्घे मशालों से उठा जलती चूल्हे की लकड़ी को तेरे डेरे का रौशन सवेरा हो ! मानता हूँ मौसम जानलेवा है तूफ़ान से लड़ने का तेरा हौंसला तेरी फ़ितरत का कलेवर है तू जानता है मारने वाले से बढ़कर बचाने वाला है बचा ले लोक का तंत्र तेरा लंगर भतेरा है ! याद रख एक संगत,एक पंगत बुनियाद है संविधान की बुद्ध,नानक,गांधी की धरती पर आज हिंसा दहशत का अँधेरा है बहा प्यार की गंगा तेरे चूल्हे की लकड़ी से अब उजाला हो  !

साल जा रहा है

      सादा-जीवन  भी मुमकिन है  सुरेंद्र सैनी        माना  कि ये साल  जा रहा है अनसुलझा सवाल जा रहा है फिर भी बहुत सिखाया इसने समझ का  कमाल जा रहा है कितना संयम आया ज़िन्दगी  ख़ुश होना हर हाल जा रहा है वक़्त की कद्र जानी  है  हमने बेतरतीबी का काल जा रहा है रिश्तों में आयी है नजदीकियां जज़्बात में उबाल जा  रहा है सादा-जीवन  भी मुमकिन है सादगी का हमाल' जा  रहा  है (वाहक) कुछ लोगों ने पंक' समझा "उड़ता" (कीचड़) मुझे लगा कमल-नाल' जा रहा है (कमल-डंडी)

झूठी शान हुई महान

मंजुल भारद्वाज झूठे विज्ञापन देख सच लगता है मध्यवर्ग के बुझे चेहरों की रंगत लौट आती है राष्ट्रवाद,गाय,गोमूत्र  सारी मिठाई गुड गोबर खुशियां बांटने के लिए एक चॉकलेट का शुक्रिया! कील मुहांसे और फुंसी झट से दूर कर देती हैं नीम हल्दी और तुलसी विकार का प्रसार  नहीं कहीं कोई घाटा बिक जाता है आयुर्वेद योग भोग बेसन का आटा ! दंगों के दाग़ से देश झुलस जाता है कीचड़ कमल सा  खिल जाता है पर देखो सर्फ़ का कमाल कपड़े के धाग अच्छे हो चुटकी में धुल जाते है ! दिल का दौरा आंखों की चमक घुटनों का दर्द डाबर हमदर्द  नफ़रत का डंक ज़मीर का कलंक उम्रभर सालता है! दो मिनट की मैगी चार मिनट का पास्ता अमर कर देते हैं मां की ममता वाशिंग मशीन की क्षमता लाती है नर नारी समता ! भाव विभोर टीवी दर्शक चुनते हैं अपनी चॉइस शॉपिंग मॉल ,अमेज़न से खरीदी जाती हैं खुशियां ! झूठे विज्ञापन साबित करते हैं  देश का ज्ञान साबन,तेल नमक  नहीं चुन सकता  देखो देश इतना अहमक ! अख़रोट का स्क्रबर  बादाम का तेल गोदरेज की डाई  शारीरिक कमज़ोरी ढिंढोरा पीटकर बताई ! खाना पौष्टिक नहीं जंक फूड हुआ बाहर का दिखावा अंदर से बेहतर हुआ ! हल्दी,मिर्च,धनिया उगा

इतना जल्दी तो गिरगिट ना बदले

चाल बदली है...  सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता" उन्हें  देखकर  क्यों चाल बदली है  अतीत फेंककर फटेहाल बदली है दो - चार  दिन  क्या गुजारे शहर में उनके चेहरे की रंगत-जमाल बदली है लोग उसका नाम अदब  से लेते थे हालात बदले तो मिसाल बदली है नए तरीके फंसाने के ईज़ाद किए है वक़्त के साथ पुराने जाल बदली है हम तो आज भी वादे पर कायम हैं नियत नहीं बदली,ये साल बदली है आज फिर  चौक पर शौर हो रहा है लोग वही हैं बस वज़ह-बवाल बदली है इतना जल्दी तो गिरगिट ना बदले "उड़ता" जो कि देखते दुनियां बेमिसाल बदली है../

कुछ नेकी की होगी

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वो भला है उसने कुछ नेकी की होगी उसे  सब  पता है कुछ रेकी की होगी सुरेंद्र सैनी  ऐसे  ही  नहीं  हुनर  आया  है  उसमें उसने कुछ गति देखा-देखी की होगी उसको भी उन्मुक्त गगन पसंद होगा लेकिन उसने कुछ अनदेखी की होगी वो  तो  नदी सा अनवरत  बहता  है उसकी आदत सुधा-सरेखी की होगी उसका मकान कुछ अलग दिखता है उसने घर के बाहर कोई टेकी की होगी कोई भी अल्फाज़ ले लेते हो "उड़ता" कहाँ से और कैसे किताब-सेकी की होगी. 

जो किसान के साथ नहीं!

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मंजुल भारद्वाज जो किसान के साथ नहीं उसे देश का ज्ञान नहीं जो किसान के साथ नहीं उसे न्याय का भान नहीं जो किसान के साथ नहीं उसे मिटटी से लगाव नहीं जो किसान के साथ नहीं उसे लोकतंत्र का मान नहीं जो किसान के साथ नहीं उसे अधिकारों का पता नहीं जो किसान के साथ नहीं उसे आत्मसम्मान से प्यार नहीं जो किसान के साथ नहीं उसे स्वावलम्बन स्वीकार नहीं !  

प्यार को क्यों बेच दूँ

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दिल है नादां अपने दिल से मैं बग़ावत क्या करूँ बलजीत सिंह बेनाम दिल है नादां अपने दिल से मैं बग़ावत क्या करूँ उनसे नफ़रत क्या करूँ उनसे मोहब्बत क्या करूँ लौट कर वापस न आया है सितमगर आज तक ये बता जाता कि माज़ी से जुड़े ख़त क्या करूँ मैं दिखावा कर नहीं सकता हूँ दुनिया की तरह मन में ही इज्ज़त नहीं तो झूठी इज्ज़त क्या करूँ प्यार को क्यों बेच दूँ फिर हुस्न के बाज़ार में लोग चाहे कुछ करें पर मैं सियासत क्या करूँ

तेरी जुदाई में..

सुरेंद्र सैनी   तेरी जुदाई में दिल अकसर रोता है हँसता हूँ, दर्द मेरे अंदर होता है. मैं जगता रहता हूँ रातभर , मगर, मेरा महबूब घर में चैन से सोता है. मिलते हैं दो दिल और जुदा होते हैं. ऐसा तो मोहब्बत में सदा होता है. नींद भी नहीं रहती इन आँखों में. और मेरा दिले - चैन भी खोता है. मेरे सपनों में तू ही बारबार आता है. और नयी - नयी बाहर लाता है. तेरा चेहरा दिन-रात सामने आता है. तुम करीब हो तो कुछ नहीं होता. तेरी दूरी से तेरा ही ख्याल आता है. "उड़ता"ये खब्त है कब सर से उतरे, तू हर दिन लफ्ज़ से नज़्म बनाता है.

अपने होने की आहुति लिए..

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एक प्यासी नदी मंजुल भरद्वाज  एक प्यासी नदी विरह की आग में तपती हुई तपिश के किनारों में बंधी मन की लहरों में खोज रही है अपने समंदर को खुद के होने को कभी मन के समंदर में कभी तपिश की आग में ढूंढ़ रही है अपनी आहुति लिए हुए!

कहां हैं जीवन समंदर को मथने वाले सृजनकार!

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  मंजुल भारद्वाज दुनिया में बड़ा दर्द है  ज़िंदगी बहुत सर्द है ढूंढ़ रही हमदर्द है  हुक्मरानों की मारी दुनिया सारी करहाते हुए  लगा रही गुहार है कहीं कोई मथ दे जीवन का  समंदर हर ले पीड़ा कर दे विष  और अमृत अलग विष को अपने कंठ में धर समाधिस्थ हो जाए  गंगा जीवन का अमृत लिए बहती रहे कहां हैं  कौन हैं वो सृजनकार जो अपने सृजन से ज़िंदगी के समंदर को मथ रहे हैं अपने सृजन से दुनिया का दर्द पी रहे हैं हुक्मरानों के ज़ुल्म से बचने का जज़्बा जनता में जगा रहे हैं !

मेरा मासूम स्पर्श

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मंजुल भारद्वाज पूरी दुनिया है माँ मेरा ख़्वाबों का आसमान मेरे कदमों की ज़मीन है माँ क्रूर व्यवस्था में ममता का संबल है माँ मुझे पता है तेरे कदम लहूलुहान हैं माँ आज दर दर भटकना नियति नहीं निर्दयी शासक का फ़रमान है माँ तेरे त्रासदायक आज में मेरा मासूम स्पर्श तेरी मरहम है माँ जानलेवा हालात से जीतने का जज़्बा है माँ!