मैं हूं क्योंकि हम हैं!

 'उबुन्तु' एक सुंदर अफ्रीकी शब्द है!

एक बार एक अंग्रेज़ पादरी अफ्रीका के 'कालाहारी रेगिस्तान' में गया था, वो जानना चाहता था कि कालाहारी जैसे कठोर वातावरण में बहुत कम भोजन और पानी के बावजूद ज़िंदा कैसे रहते हैं? 

उसकी रिपोर्ट थी कि जिंदा रहने के लिए आदिवासियों को आपस में कड़ा संघर्ष करना पड़ेगा।

यह जानने के लिए उसने विविध बच्चों को एक खेल खेलने के लिए कहा।

उसने 'मिटाइयों से भरी डोकरी' दूर एक पेड़ के पास रख दिया

और बच्चों ने कहा कि, जो बच्चा दौड़कर सबसे पहले उसे सभी मिठाइयां खाने को मिलेगा।

यह सुनकर गरीब-भूखे बच्चे खुशी से चिल्लाने लगे।

जैसे पादरी ने कहा : ... रेडी स्टेडी गो !

सभी बच्चों ने एक दुसरे का हाथ पकड़ लिया और सब के सब एक साथ पेड़ की ओर दौड़ पड़े, वहां जाकर उन्होंने मिठाइयाँ आप में बांट ली और महीने से भोजन करने लगे।

यह दृश्य देखकर अंग्रेज पादरी हैरान रह गए, उन्होंने बच्चों से पूछा कि, उन लोगों ने ऐसा क्यों किया?

बच्चों ने एक सुर में कहा:- "उबुंटू (उबंटू)"

पादरी ने पूछा:- ये "उबुंतु" क्या होता है ?

बच्चों ने बताया कि:- यह उनका काबिले का सिद्धांत है, जिसके पालन करने वाले कबीले के हर सदस्य का फर्ज है।

पादरी ने प्रश्न किया:- 'उबुन्तु' का क्या अर्थ होता है ?

बच्चों ने बताया :- उबुन्तु' का अर्थ है "मैं हूँ, क्योंकि हम हैं!" अर्थात "मैं हूँ क्योंकि हम हैं!" 

और तब पादरी को पता चला कि उसका लेखा-जोखा कितना गलत था।  

कठोर वातावरण में जीने के लिए 'आपसी संघर्ष' की नहीं बल्कि आपसी 'सहयोग' और 'सहभागिता' की आवश्यकता होती है।

सहयोग ही अखंड मानव समाज का आधार मूल्य है।

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